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कहानी - March 16, 2023

अंग्रेजों को धूल चटाने वाली बेगम हजरत महल

बेगम हजरत महल: इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ देश की महिला क्रांतिकारियों ने उतने ही जोश से हुंकार भरी थी जितनी पुरुष क्रांतिकारियों ने। आज भी पूरे गर्व से रानी लक्ष्मीबाई और सावित्री फूले जैसी वीरांगनाओं का नाम सबसे ऊपर आता है। इस कड़ी में लखनऊ की मशहूर बेगम हजरत महल का नाम भी पूरे शौर्य के साथ लिया जाता है। हजरत महल ने अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में ऐसी लड़ाई लड़ी कि उसमें उन्होंने अपना सबकुछ लुटा दिया।  बेगम ने आजादी की इस पहली लड़ाई में अपनी बेहतरीन संगठन शक्ति और बहादुरी से अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था।

आपको जानकर हैरानी होगी कि बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति में कूदने वाली पहली महिला थी। हजरत महल अवध की आखिरी बेगम थी, वो मजबूत इरादों वाली उन महिला शासकों में थी जिन्होंने अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने के बजाए अपना आत्मसम्मान और आजादी को चुना। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि लखनऊ की नवाब की बीवी होने के बावजूद उन्हें खुद मैदान में उतरना पड़ा?

लखनऊ की बेगम हजरत महल:

3 जुलाई 1857 को लखनऊ के कैसरबाग़ महल के बगीचे से बारादरी की तरफ एक बड़ा जुलूस धीरे-धीरे बढ़ रहा था। उस जुलूस के बीचों-बीच एक 14 साल का दुबला पतला बच्चा चल रहा था जिसका नाम था बिरजिस कद्र। वो बेटा था अवध के नवाब वाजिद अली शाह का, जिनके राज़ पाठ को अंग्रेजों ने एक साल पहले छीन लिया था और नवाब को कलकत्ता भेज दिया था। लखनऊ छोड़ने से पहले नवाब वाजिद आली शाह ने बिरजिस की माँ हजरत महल और अपनी 8 और रानियों को तलाक दे दिया था। इस जुलूस का मकसद था बिरजिस को अवध का नया नवाब घोषित करना। अंग्रेजों के खिलाफ दिल्ली से लेकर अब लखनऊ तक में विद्रोह की आग भड़क चुकी थी।  और अपने नाबालिग बेटे को गद्दी पर बैठ कर 7 जुलाई 1857 से बेगम अंग्रेजों के खिलाफ रणभूमि में उतर गई।

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जैसे ही चिनहट में अंग्रेज सैनिकों के हारने की खबर फैली, बेगम हजरत महल का साथ देने के लिए तमाम विद्रोही सैनिक लखनऊ पहुँचने लगे। बेगम हज़रत महल ने 8 महीनों तक लगातार विद्रोहियों के साथ अंग्रेजों का सामना किया। लखनऊ में हुए इस विद्रोह में साहसी बेगम हजरत महल ने अवध के क्षेत्र के गोंडा, फैजाबाद, सलोन, सुल्तानपुर, सीतापुर, बहराइच को अंग्रेजों से छुड़ाकर लखनऊ पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया था। ये कहना गलत नहीं होगा कि अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की शुरुवात हजरत महल ने ही की थी। उन्होंने हिन्दू मुस्लिम सभी राजाओं और वहाँ की अवाम को मिलाकर अंग्रेजों को पछाड़ दिया था।

बेगम हजरत महल ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना के साथ अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे….उनका खौफ इस हद तक बढ़ गया था कि रेसीडेंसी में हजारों अंग्रेज छुपकर बैठे हुए थे। लेकिन बाद में अंग्रेजों ने उनके खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंक दी। बेगम हजरत महल को पीछे हटना पड़ा और अपना महल छोड़कर जाना पड़ा। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अवध के देहात के इलाकों में नाना साहेब और फैजाबाद के मौलवी के साथ मिलकर गोरिल्ला युद्ध नीति अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।

मौलाना अहमद शाह की हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद बेगम हजरत महल बिल्कुल अकेले पड़ गई और उनके पास अवध छोड़ने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा था। हालात अब बिगड़ चुके थे हज़रत महल किसी भी कीमत पर अंग्रेजों के हाथों नहीं आना चाहती थीं इसलिए उन्होंने अपने बेटे के साथ नेपाल चले जाने का फैसला किया। नेपाल के उस वक्त के राजा राणा जंगबहादुर ने उन्हें शरण दी, उनके मन में बेगम हजरत महल के लिए बहुत सम्मान था। अपनी आखिरी सांस तक हजरत महल वहीं रही। आज भी बेगम हजरत महल का मकबरा काठमांडू की जाम मस्जिद में है।

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