
इस्लाम में कौन हैं शिया और सुन्नी, क्या है रोजे में फर्क?
दुनिया के दुसरे सबसे बड़े धर्म इस्लाम में आखिर ऐसा क्या है जो ये सिया और सुन्नी नाम के दो गुटों में बटा हुआ है. ये दोनों ही अल्लाह को मानते है, दोनों ही कुरान की आयतों को पूजते है, नमाज पढ़ते है, इस्लामिक है. लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी सदियों से मतभेद में घिरे हुए है. और एक दुसरे को सच्चा मुसलमान मानने से इंकार करते है.
आखिर कैसे ये दोनों ही एक दुसरे से अलग है आईये जानते है……
सिया और सुन्नी दोनों में ही नमाज एक जैसी ही पढ़ी जाती है लेकिन दोनों के नमाज पढने के तरीके एक दुसरे से काफी अलग है सुन्नी लोग दिन में पांच बार अलग अलग समय में नमाज अदा करते है तो वहीँ सिया मुसलमान एक समय में एक से ज्यादा बार भी नमाज पढ़ सकते है
नमाज पढ़ते समय जहा सुन्नी मुसलमान अपने दोनों हाथो को बांध कर रखते है यानि क्रॉस कर तो वही सिया अपने दोनों हाथो को बाहर की तरफ खुला रखते है.
कौन हैं शिया और सुन्नी?
एक जमीन पर अपना माथा रख नमाज पढ़ते है तो वहीँ दुसरे पत्थर पर सर रख नमाज पढ़ते है ये पत्थर एक खास मिटटी तुरबाह से बना होता है. कहा जाता है इस पत्थर पर पैगम्बर मोहम्मद और उनके घरवालो के नाम होते है। सिया मुसलमान कब्र के आगे भी नमाज पढ़ते है, उनका मानना है खुदा के पास जाता बन्दा उनकी दुआ उन तक पहुचाएगा लेकिन सुन्नी मुसल्मान अल्लाह के अलावा किसी और के सामने नमाज पढने को गुनाह मानते है.
सुन्नी मुसलमान कभी भी सिया मुसलमान के हाथो का खाना नहीं खा सकते है क्योंकि उनका मानना है कि सिया अपना खाना थूक कर खाते है. हालाँकि इस बात में कितनी सच्चाई है किसी को नहीं पता. रमजान में रोजे रखने का तरीका दोनों का एक ही है लेकिन सहरी और इफ्तार के समय में फर्क देखने को मिलता है. सुन्नी मुसल्मान अपना रोजा सूरज के पूरी तरह से डूब जाने पर खोलते है. तो वहीँ सिया मुस्लिम आसमान में पूरी तरह से अँधेरा हो जाने तक का इंतजार करते है. और उसी के बाद अपना रोजा खोलते है.
सुन्नी मुस्लिम रोजा खोलते समय मगरिब की नमाज पढता है तो दूसरी तरफ सिया नार्मल नमाज पढ़ अपना रोजा खोलते है. ऐसी ही तरके में सेहरी के दौरान सुन्नी मुस्लिम से 10 मिनट पहले ही सिया मुस्लिम के खाने का वक्त ख़त्म हो जाता है. कुछ इसी तरह ही रमजान के महीने में एक ख़ास तरह की नमाज पढ़ी जाती है जिसे तराबी नमाज कहते है. इस तराबी नमाज को सुन्नी मुसलमान के लोग रात में ईशा की नमाज के बाद पढ़ते है.और सिया समुदाय के लोग इसे पढ़ते ही नहीं है.
ये तो थी इनके बीच के फर्क लेकिन ये मतभेद की शुरुआत कहा से हुयी. अगर आपको भी नहीं पता कि दोनों अलग अलग क्यों है? तो आज हम आपको इस विडियो में आगे बताएँगे कि कैसे शिया और सुननी में बंट गए मुसलमान। सिया और सुन्नी का खुनी संघर्ष करीब 1500 साल पुराना है. ये विवाद शुरू होता है पैगम्बर साहब की मौत के तुरंत बाद से….. जब सवाल ये खड़ा होता है कि अब इस्लाम का अगला नेता कौन होगा, कौन होगा वो जो इस्लाम को आगे बढ़ाएगा.
इसकी पूरी कहानी जानने के लिए थोडा और फ़्लैशबैक में जाना होगा. दरअसल इस्लामिक इतिहास पर नज़र डाली जाए तो उर्दू कैलेंडर के ज़िलहिज्जा महीने की 18वीं तारीख दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से बांट देती है. लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ इस दिन जो इसके बाद एक ही धर्म दो भागो में बट गया. पैगंबर मोहम्मद साहब अपनी ज़िंदगी का आखिरी हज करके मक्का शहर से अपने शहर मदीना की ओर लौट रहे थे.
मक्का शहर से जुड़ी है कहानी:
रास्ते में ही ज़िलहिज्जा की 18वीं तारीख यानी 19 मार्च 633 ईसवी पड़ी. इस दिन मोहम्मद साहब मक्का शहर से 200 किलोमीटर दूर ज़ोहफा नाम की जगह पर पहुंचे थे. इसी जगह पर सारे हाजी एहराम यानी हज करने वाले कपड़े भी पहनते थे. हज करने गए सारे हाजी वापिस इसी जगह तक आते थे और उसके बाद अपने-अपने देशों के लिए रास्ता चुनते थे. इसी जगह से मिस्र, ईराक, सीरीया, मदीना, ईरान और यमन के रास्ते अलग होते थे. कहा जाता है कि इसी जगह पर पैगंबर साहब को अल्लाह ने संदेश भेजा.
अल्लाह का यह संदेश कुरान में भी मौजूद है, कुरान के पांचवे सूरह, सूरह मायदा की 67 वीं आयत में उस संदेश के बारे में लिखा है कि – ‘या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास’। इसका मतलब है कि ‘ऐ रसूल उस संदेश को पहुंचा दीजिये जो आपके परवरदिगार की तरफ से आपको बताया जा चूका है. अगर आपने यह संदेश नहीं पहुंचाया तो गोया आपने रिसालत का कोई काम ही नहीं अंजाम दिया.
इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैगंबर मोहम्मद साहब ने सभी हाजियों को ज़ोहफा से 3 किलोमीटर दूर गदीर नामक मैदान पर रुकने के आदेश दे दिए. उसके बाद मोहम्मद साहब ने उन लोगों को भी वापिस बुलवाया जो लोग आगे जा चुके थे और उन लोगों का भी इंतज़ार किया जो लोग पीछे रह गए थे.
तपती गर्मी और चढ़ती धूप के आलम में भी लोग मोहम्मद साहब का आदेश पाकर ठहरे रहे. इस दौरान सीढ़ीनुमा ऊंचा मंच भी बनाया गया जिसे मिम्बर कहा जाता है. हदीसों के मुताबिक इसी मंच यानी कि मिम्बर से पैगंबर मोहम्मद साहब ने अपने दामाद हज़रत अली को गोद में उठाया और कहा कि ‘जिस जिसका मैं मौला हूं उस उस के ये अली मौला हैं.’
क्या हैं मतभेद?
यहां तक दोनों ही समुदाय एकमत हैं. दोनों ही समुदाय के लोग कहते हैं कि हां यही घटना हुई थी. लेकिन दोनों ही समुदायों के बीच मतभेदों की शुरुआत भी यही से हुई. इस ऐलान में मौला शब्द का इस्तेमाल किया गया था. और बस यही मौला शब्द दोनों समुदाय के बीच दरार की एक बड़ी वजह बनी. मुसलमानो का एक गुट यानि सिया मुसलमानों को मानना हैं कि मौला शब्द का मतलब लीडर है. जबकि दूसरा गुट यानि सुन्नी ऐसा बिल्कुल नहीं मानते हैं. इनका कहना है मौला यानि दोस्त.
गदीर की घटना के बाद मोहम्मद साहब तीन दिन तक उसी मैदान पर रुके रहे. तमाम हाजी मोहम्मद साहब से मुलाकात करते रहे. us वक़्त कुछ लोग ये कह रहे थे कि लोग मोहम्मद साहब को उनके उत्तराधिकारी के ऐलान करने के लिए मुबारकबाद दे रहे थे. तो वहीं कुछ मुसलमानों का ये मानना है कि लोग मोहम्मद साहब को हज की मुबारकबाद दे रहे थे. इस वक्त तक शिया और सुन्नी नाम के शब्दों की ही उपज नहीं हुई थी. यानी अभी तक वो सभी एक the. पैगंबर मोहम्मद साहब अपने शहर पहुंचे और कुछ ही महीनों के बाद उनका निधन हो गया.
निधन की तारीखों पर भी मुसलमानों के दोनों तबके अलग-अलग राय रखते हैं. मोहम्मद साहब के निधन के बाद मोहम्मद साहब की गद्दी पर उनका कौन वारिस बैठेगा इसी को लेकर दोनों ही समुदाय अलग-थलग पड़ गए. मुसलमानों के एक धड़े का मानना था कि मोहम्मद साहब ने गदीर के मैदान पर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. इसलिए इस पद पर किसी और को नहीं बिठाया जा सकता है.
जबकि दुसरे धड़े के मुताबिक मोहम्मद साहब ने किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया था इसलिए इस पद के लिए चुनाव किया जाना चाहिए और फिर उस वक्त के बुजुर्ग हज़रत अबु बक्र सिद्दीकी को इस पद के लिए चुन लिया गया. यहीं से मुसलमानों के दो टुकड़े हो गए. मोहम्मद साहब के इंतकाल के बाद जिन लोगों ने हज़रत अबु बक्र को अपना नेता माना वह सुन्नी समुदाय कहलाए गए. जिन लोगों ने हज़रत अली को अपना नेता माना वह शियाने अली यानी कि अली के चाहने वाले शिया कहलाए गए.
सुन्नी समुदाय ने हज़रत अबु बक्र के बाद हज़रत उमर, हज़रत उमर फारूक के बाद हज़रत उस्मान गनी और हज़रत उस्मान के बाद हज़रत अली को अपना खलीफा चुना. जबकि शिया मुसलमानों ने खलीफा के बजाय हज़रत अली को अपना इमाम माना और हज़रत अली के बाद ग्याहर अन्य इमामों को मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी माना.
खलीफा और इमाम का अर्थ लगभग एक जैसा ही है, इन दोनों का ही अर्थ उत्ताराधिकारी का है. यानी दोनों ही समुदायों के बीच असल लड़ाई मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी के पद को लेकर है. हालांकि दोनों ही समुदायों में काफी सारी भिन्नताएं हैं जो दोनों को ही एक दूसरे से अलग करती है. इन दोनों समुदाय के लोगों की अज़ान से लेकर नमाज़ तक के तौर तरीके अलग अलग हैं.
मुस्लिम आबादी में बहुसंख्य सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है. ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है. इसके अलावा मुसलमान और आगे भी देवबंदी , बरेलवी और एहले हदीस जैसे तमाम फिरको में बंटे हुए है.